Hindi nibandh

भाषा, साहित्य एवं संस्कृति उद्भव एवं विकास
प्रथम प्रवासी भारतीय श्रमिक के फीजी में अपना पग रखते ही हिंदी का प्रवेश यहाँ हो गया था। क्यों कि अधिकांश श्रमिक भारतवर्ष के हिंदी भाषी प्रदेशों से यहाँ आए थे अतः यहाँ उन्हीं की ही भाषा स्थापित हुई और इस तरह हिंदी भारतीयों की प्रमुख भाषा बनी। आज प्राथमिक पाठशालाओं से लेकर विश्वविद्यालय तक पढ़ाई जाने वाली हिंदी फीजी की एक महत्वपूर्ण भाषा है तथा समाचार माध्यमों में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान देखा जा सकता है।
प्रवासी भारतीयों का आगमन
फीजी में प्रथम प्रवासी भारतीयों का आगमन सन १८७९ ई के १५ मई को हुआ। तब से लगातार लगभग चालीस वर्षों तक वे मज़दूरों के रूप में यहाँ आते रहे। सन १९१६ ई तक ६०,००० से भी अधिक प्रवासी भारतीय फीजी पहुँचते रहे और श्रमिकों के रूप में इस छोटे से द्वीप को आबाद करते रहे।
भारतवर्ष तब ब्रिटिश सरकार के आधीन था। भारत से दूर सुदूर पूर्व में प्रशांत महासागर के दक्षिण प्रांगण में ४०० से भी अधिक छोटे-छोटे द्वीपों का समूह फीजी भी ग्रेट ब्रिटेन का एक उपनिवेश था। गन्ना उत्पादन के लिए यह देश अत्यधिक अनुकूल एवं उपयुक्त पाया गया। पड़ोसी देश ऑस्ट्रेलिया की एक चीनी कंपनी फीजी में गन्ने का व्यापार सँभाल रही थी। गन्ना-खेतों पर काम करने के लिए सही श्रमिक मिल नहीं रहे थे।
देश के आदिम निवासी खेत में काम करना नहीं चाहते थे। यह उनकी प्रकृति के विपरीत था। वे मौज-मस्ती और आज जियो कल देखा जाएगा की भावना से ओत-प्रोत थे। फिर भला वे खेत में क्यों काम करते? देश में प्राकृतिक संपदा की कमी नहीं थी। यहाँ के समुद्र और नदियों में विभिन्न प्रकार की मछलियों की बहुतायत रही और छोटे बड़े वनों में जड़-पदार्थ की कमी कभी भी नहीं रही। जीविका के लिए तो उन्हें आवश्यक वस्तुएँ स्वतः ही उपलब्ध थीं। फिर भला मेहनत मशक्कत कर जीविकोपार्जन की आवश्यकता ही कहाँ रही? गन्ना के खेतों में मजदूर बनकर कड़ी मेहनत करना उनके स्वभाव के विपरीत था।
पास-पड़ोस के कुछ अन्य द्वीपों से भी श्रमिक लाए गए। लेकिन उनके द्वारा भी गन्ने की खेती बढ़ाई नहीं जा सकी। कुछ अन्य देशों से भी श्रमिक आयात किए गए, लेकिन उनका भी समय गन्ने के मीठे और स्वादिष्ट रस चूसने में अधिक बीता, खेतों में मरना उन्हें नहीं भाया। अंततः भारतवर्ष से प्रवासी भारतीयों को ही इस कार्य संपादन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया क्यों कि वे मॉरिशस, सूरीनाम, गुयाना जैसे उपनिवेशों में अपनी योग्यता पहले ही प्रकट कर चुके थे। अतः यह स्वाभाविक था कि फीजी में गन्ने की खेती को सफल बनाने के लिए भारत से ही श्रमिक आयात किए जाएँ। शासकों का निर्णय कार्य रूप में परिणत हुआ और यहाँ की गन्ना-कंपनी को इस ओर आशातीत सफलता मिली।
हज़ारों प्रवासी भारतीय श्रमिक फीजी लाए गए और पाँच वर्षों का शर्तबंदी जीवन व्यतीत कर उनमें से अधिकांश गिरमिटिया यहीं बस गए - गन्ने की खेती को और भी अधिक बढ़ावा मिला। 'शर्तबंद अथवा अग्रीमेंट के अंतर्गत आने के कारण वे शर्तबंदी मज़दूर कहलाए और अंग्रेज़ी का तत्सम शब्द अग्रीमेंट बिगड़ कर गिरमिट हो गया। गिरमिट काटने वाले गिरमिटिया कहलाए।
गिरमिट काल में साहित्य रचना नगण्य ही रही है। चालीस वर्षों के इस अंतराल में रामायण, महाभारत, आल्हखंड जैसे महाकाव्यों से संबंधित कथाएँ कहा-सुनी जाती रहीं, साथ ही अन्य प्रेरक एवं मनोरंजक किस्सा-कहानी भी समय काटने का माध्यम रहीं। पूरे गिरमिट काल में अव्यवस्थित ढंग से हिंदी साँस लेती रही, हिंदी जीवित रही। इन दिनों पारंपरिक एवं तत्कालीन परिस्थितियों पर आधारित लोकगीतों का ही बोल-बाला था जो विशेषतः लोक रीतियों को पुष्ट करता रहा, उनका संरक्षण और संवर्धन करता रहा।

गिरमिट काल के पश्चात हिंदी का विकास
सन १९१६ में गिरमिट प्रथा का अंत हो गया लेकिन १९२० तक उसका प्रभाव बना ही रहा। दैनिक जीवन में कोई विशेष बदलाव नहीं आया। लेकिन हाँ, १९२० के बाद अनेक परिवर्तन होने लगे - लोगों के जीने की व्यवस्था में सुधार होने लगा, अपनी संतति के भविष्य को सँवारने-सुधारने के उपाय सोचे जाने लगे। जहाँ-तहाँ पाठशालाओं की स्थापना का प्रबंध होने लगा, लोगों के सोचने-विचारने में भी परिवर्तन आने लगा। व्यवस्थित एवं उन्नत जीवन जीने का संघर्ष ज़ोर पकड़ने लगा। भारतवर्ष से हिंदी की किताबें मँगाई जाने लगीं। किस्सा-कहानी, नाटक-नौटंकी, मेला-ठेला आदि के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा। लोगों में अपने व्यक्तित्व, अपना परिचय आदि बनाए रखने की ओर ध्यान अधिक आकर्षित होने लगा।
पाठशालाओं के साथ लिखित साहित्य की ओर भी ध्यान आकर्षित होना स्वाभाविक था। पाठशालाओं में औपचारिक रूप से पढ़ाए जाने के लिए तथा स्वयं का ज्ञान संवर्धन हेतु किताबें मँगाई जाने लगीं। फलस्वरूप सदाबृज-सारंगा, गुलबकावली, गुलसनोवर, हातिमताई, सिंहासन बत्तीसी, बैताल-पचीसी, बाला-लखंदर जैसी सहज ग्राह्य पुस्तकों का प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा।
किस्सा-कहानी के कारण बैठकें जमने लगीं। आल्हखंड, भरथरी, सारंगा आदि की स्वर-लहरियाँ गूँजने लगीं। मंदिरों का निर्माण होने लगा, रामायण पाठ होने लगे, आल्हा की बैठकें जमने लगीं और साथ ही धार्मिक अनुष्ठान भी होने लगे। धर्म प्रचार हेतु ब्राह्मण-पुरोहित आगे बढ़े, पुरुषों और महिलाओं की मंडलियाँ गाँव-गाँव में बनने लगीं और फिर राम-नवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, दीवाली आदि त्यौहारों का समय-समय पर आयोजन होने लगा, बैठकें जमने लगीं।
धार्मिक पर्वों और उत्सवों की अभिवृद्धि के साथ-साथ, राष्ट्र के अनेक इलाकों में रामलीला और दशहरा का भी आयोजन होने लगा। रामायण, प्रेम सागर, विश्राम सागर, आल्हखंड जैसे ग्रंथों ने जहाँ हिंदी भाषा को बनाए रखने की प्रेरणा देने लगे वहीं औपचारिक रूप से हिंदी पढ़ने-पढ़ाने के प्रति भी प्रबुद्ध-समुदाय का ध्यान खींचा। प्रायः सभी भारतीय पाठशालाओं में पढ़ाने का माध्यम हिंदी ही बनी और वर्षों पर्यंत चौथी कक्षा तक इन पाठशालाओं में हिंदी ही शिक्षण का माध्यम रही।
हिंदी की स्थापना में बहुत से लोगों ने हाथ दिया। कई पढ़े-लिखे हिंदी-प्रेमी अपनी रचनाएँ भी हिंदी में करने लगे और जैसे-तैसे उनके प्रकाशन की भी व्यवस्था होने लगी। स्वाभाविक ही था इस प्रवाह को सुनियोजित एवं व्यवस्थित करने के लिए तथा स्थानीय लोगों के उत्साहवर्धन के लिए हिंदी-प्रेस और हिंदी समाचार पत्रों को बढ़ावा दिया जाए। जागृति, फीजी समाचार, शांतिदूत, प्रशांत समाचार सामने आए। इन समाचार पत्रों के सहारे फुटकर पत्र-पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होने लगीं।
काल विभाजन
उद्भवः सन १८७९-१९२० ई.
फीजी में जब १८७९-१९२० तक भारतवर्ष से गन्ने के खेतों तथा चीनी मिलों में काम करने के लिए भारतीय श्रमिक लाए जाते रहे तो वे साधारण जन अपने साथ अपनी भाषा, संस्कृति एवं धर्म लाए। फीजी के लिए श्रमिकों को भारत के विभिन्न प्रांतों से लाकर कलकत्ता से पानी के जहाज़ों द्वारा फीजी लाया जाता रहा। कलकत्ता से आख़िरी बार अपनी मातृभूमि से विदा होने के कारण इन बिछुड़े हुए लोगों को कलकतिया और एक ही जहाज़ में सभी को एक साथ सफ़र करने के कारण जहाजी भाई कहा जाने लगा। कलकतिया एवं जहाजी भाई शब्दों ने फीजी में आए प्रवासी भारतीयों को आत्मीयता के बंधन में बाँध कर और भी क़रीब ला दिया। इनमें से अधिकांश लोग हिंदी बोलते थे, कुछ लोग लिखते-पढ़ते भी रहे इसलिए हिंदी ही प्रवासी भारतीयों की संपर्क भाषा बनी।
फीजी में हिंदी के इस उद्भव काल को गिरमिट काल कहना ज़्यादा समीचीन होगा। यह काल हमारे पूज्य पूर्वजों के लिए उत्पीड़न, शोषण एवं निराशा का काल था। इन्हें इंसान कम, पशु अथवा गुलामों से भी गिरे हुए रूप में औपनिवेशिक मालिकों ने देखा। उनका व्यवहार भी अधिकांशतः अमानुषिक, क्रूर, अत्याचार तथा अन्यायपूर्ण था। तब हिंदी पढ़ना-पढ़ाना बिल्कुल कानून विरोधी माना जाता था। फिर भी अपने को राम जी जैसे वनवासी मानते हुए धर्म की भावना से ओतप्रोत भारतीयों ने अपनी भाषा की ज्योति जलाए रखने का दृढ़ संकल्प लिया। इस बीच दीनबंधु-सी एफ एंड्रूस जैसे अच्छे अंग्रेज़ पादरी भी इस देश में आए और प्रवासी भारतीयों के प्रति गहन संवेदना एवं सहिष्णुता का व्यवहार किया। शिक्षा के क्षेत्र में विशेष बल दिया जाने लगा और लोगों ने तुलसी की रामायण को अपने दामन से बाँधे रखा। जिन लोगों को हनुमान चालीसा, रामायण की चौपाई, कबीर के दोहे याद रहे, साथ ही पूजा-पाठ के कुछ मंत्र, संस्कृत के कुछ श्लोक, ग्राम्य जीवन की कुछ कहावतें, मुहावरे और लोकोक्तियाँ याद रहीं, कबीर, सूर, मीरा, रैदास और तुलसी के भजन-कीर्तन याद रहे और महिलाओं को जो लोक-गीत याद थे उन सभी का इस काल में भरपूर प्रयोग किया गया। दिन भर के कठिन परिश्रम के बाद शाम को अथवा रविवार की छुट्टी के दिन इन्हें जब भी कुछ समय मिलता एकत्रित होकर अपने उक्त ज्ञान एवं स्मृतियों को एक दूसरे को परस्पर सुनते-सुनाते।
विकास कालः
सन १९२१-१९७० ई.
अपने इस विकास काल में हिंदी लगभग पूर्णरूप से प्रवासी भारतीयों की संपर्क भाषा का स्थान ले चुकी थी। औपनिवेशिक अधिकारियों एवं कर्मचारियों को भी भारतीयों को समझने और समझाने के लिए उनकी भाषा सीखनी पडी। यहाँ तक कि बहुत से आदिम निवासी भी कुछ-कुछ हिंदी बोलने और समझने लगे। कालांतर में हिंदुस्तानियों का संपर्क फीजी वासियों और अंग्रेजों से अधिक बढ़ जाने के कारण उनकी भाषाओं के शब्द प्रचुर मात्रा में हिंदी में प्रविष्ट हुए। हिंदी के शब्द समूह में बहुत-से देशज शब्द भी प्रविष्ट हुए। गिरमिट, फुलावा, कंटाप, दरेसी, कम्यर, बेलो जैसे शब्द फीजी में ही पैदा होकर हिंदी में समाहित हो गए।
फीजियन भाषा के तलनवा, डालो, ऊबी, चिकाउ, तानोवा, विनाका, तेईतेई, केरेकेरे, लेंगा, तुई जैसे अनेक शब्दों को हिंदी ने अपने में समाहित कर लिया। अन्य भाषाओं के सपहिया, दरूका, निगोंची, आरकाठी, सलूका, दारू, सुल्लू, उकलोई जैसे सैंकडों शब्द हिंदी का शब्द भंडार भरने लगे।
हिंदी के इस विकास काल में पं. अयोध्या प्रसाद किसानों के नेता के रूप में उभरे। इन्होंने गन्ने के किसानों के लिए किसान संघ बनाकर किसानों की माली हालत सुधारने में बहुत बड़ा योगदान दिया। पंडित जी मात्र किसान नेता ही नहीं थे अपितु हिंदी के एक अच्छे विद्वान भी थे। मैथिली शरण गुप्त की रचना भारत-भारती के द्वारा आपने प्रवासी भारतीयों में एक उत्साह, प्रेरणा तथा नवस्फूर्ति जगाई। हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी, जैसी प्रेरक वाणी से उन्होंने लोगों के व्यक्तित्व को जगाया तथा उनकी अपनी पहचान को सुरक्षित करने पर बल दिया।
शर्तबंदी प्रथा से मुक्त होकर प्रवासी भारतीयों ने अपने तथा अपनी पीढ़ियों के भविष्य की चिंता की। उन्हें लगा कि मात्र किसानी कर लेने से, कुछ अच्छे मकान और संपत्ति एकत्रित कर लेने से ही काम नहीं चलेगा, अपितु जीवन को संपन्नता प्रदान करने के लिए विद्या की भी आवश्यकता होगी। पंडित-पुरोहित, किस्सागोई, भजनीक आदि तो जैसे-तैसे हिंदी का प्रचार-प्रसार कर ही रहे थे लेकिन तुलसी रामायण ने लोगों में हिंदी की जान फूँक दी। गाँव-गाँव, बस्ती-बस्ती में रामायण की चौपाइयाँ, सूर-तुलसी के भजन, महिलाओं के मधुर लोक-गीत अब गूँजने लगे थे। वातावरण में सत्यनारायण व्रत कथा, हनुमान-रोठ, सूर्य पुराण भी स्पंदित होने लगे।
आर्य-समाज, सनातन धर्म, ईसाई मतावलंबियों तथा सामाजिक संस्थाओं के द्वारा विद्यालयों की स्थापना होने लगीं। देश के अनेक भागों में इन धार्मिक एवं संगम जैसी सामाजिक संस्थाओं ने इस ओर भारी योगदान दिया। बाद में इस्लामी एवं सिख भाइयों ने भी कुछ विद्यालयों की स्थापना की।
इस युग में पंडित कमला प्रसाद मिश्र जैसे प्रकांड भाषाविद् एवं अद्वितीय कवि का अवतरण हुआ। पंडित जी ने हिंदी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, रूसी, फ़ारसी, अरबी और हिब्रू जैसी अनेक भाषाएँ पढ़ीं और उनके साहित्य का अध्ययन किया। फीजी में पंडित जी ही एकमात्र ऐसे महान कवि हुए जिन्होंने उच्च कोटि की हज़ारों कविताओं की रचना की। पंडित जी की कविताएँ छायावाद के महान कवियों के समकक्ष आसानी से रखी जा सकती हैं। पंडित जी की कविताओं ने सिर्फ़ कल्पनाओं में विहार नहीं किया अपितु धरती पर उतर कर यथार्थ का चित्रण करते हुए अनेक व्यंग्य रचनाएँ हमें प्रदान कीं। पंडित जी की कविताएँ छायावादी संस्कार से कभी बँधी नहीं रहीं। उनका काव्य-संसार निरंतर विकासशील रहा इसलिए उनकी काव्य भाषा पर छायावादोत्तर व्यक्तिवादी और प्रगतिवादी कविता के मुहावरे को भी स्पष्ट पहचाना जा सकता है। पंडित जी की अनेक कविताओं में फीजी का प्राकृतिक सौंदर्य शब्दबद्ध है। उसके सुंदर और मनोरम समुद्र-तट, सदाबहार मौसम, दूर-दूर तक फैली हरियाली, नदियाँ और पहाड़ सभी उनकी कविताओं में रूपाकार लेते हैं।
फीजी की मिट्टी की सुगंध से ओत-प्रोत प्रकृति का यह चित्रण उनके राष्ट्र प्रेम का ही द्योतक है। पंडित जी साहित्य रचना के साथ-साथ पत्रकारिता की ओर भी ध्यान रखते रहे। उन्हें लगता था कि फीजी में प्रवासी भारतीयों की अस्मिता की रक्षा के लिए हिंदी पत्रकारिता की भी बड़ी आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति आपके द्वारा संपादित साप्ताहिक रुजागृति और बाद में जय फीजी के प्रकाशन में होती है। जय फीजी के माध्यम से पंडित जी ने फीजी में हिंदी भाषा और साहित्य की ज्योति को निरंतर जलाए रखने का महान गुरु कार्य संपन्न किया। पंडित जी अपने साथ-साथ देश के अनेक लोगों को हिंदी में कविता, कहानी, दोहे, रसिया, चौताल तथा अन्य प्रकार के लोक-गीतों एवं ग्राम्य वार्ताओं को लिखने के लिए प्रेरित करते रहे और लिखवाते भी रहे।
हमारे धार्मिक, सामाजिक, एवं सरकारी विद्यालयों में अन्य विषयों के साथ शनैः शनैः हिंदी भी अपना स्थान बनाने लगी और अब समस्त राष्ट्र में हिंदी की जड़ें सामान्यतः सुदृढ़ हो चली थीं। हिंदी मात्र ग्राम्य संस्कृति की ही भाषा नहीं रही अपितु राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक आदि मंचों की भी भाषा बन गई।
वर्तमान काल
सन १९७० से आज तक
विजय दशमी सन १९७० ई. को ब्रिटिश शासनाधिकार से फीजी स्वतंत्र हो गया। आज ही के दिन प्रथम बार हिंदुओं ने विजय दशमी के साथ-साथ फीजी की स्वतंत्रता धूमधाम से मनाते हुए रामकथा से संबंधित ३० झाँकियाँ और १२ घोड़ों की सवारियाँ राम की सवारी नामक जलूस में निकाली। इन्हीं दिनों हिंदी महापरिषद फीजी की भी स्थापना हुई जिसके प्रमुख संरक्षक नवोदित राष्ट्र के प्रधान मंत्री रातू सर कमिरोसे मारा, संरक्षक प्रतिपक्षी दल के नेता जनाब सद्दीक कोया तथा प्रस्थापक अध्यक्ष हिंदी विद्वान पं. विवेकानंद शर्मा हुए। इसी दशक में नागपुर भारत में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन भी आयोजित हुआ जिसमें मॉरिशस के साथ-साथ फीजी ने भी बड़ी संख्या में अपना प्रतिनिधित्व प्रदान किया। इसी महा सम्मेलन में मॉरिशस तथा फीजी के ज़ोरदार प्रस्ताव के फलस्वरूप हिंदी यूनेस्को की एक औपचारिक भाषा स्वीकार कर ली गई। इसका अच्छा प्रभाव फीजी के प्रवासी भारतीयों पर भी पड़ा और फीजी में अनेक समाचार पत्र और पत्रिकाएँ उभर कर सामने आईं। इन्हीं दिनों जय फीजी, प्रशांत समाचार, सनातन संदेश और उदयाचल आदि का प्रकाशन आरंभ हुआ। अनेक विद्यालयों में हिंदी एक प्रमुख विषय के रूप में पाठयक्रम में लाई गई। हिंदी की अनेक रचनाएँ प्रकाशित होने लगीं और राष्ट्र कवि पं. कमला प्रसाद मिश्र के साथ-साथ जोगिंन्दर सिंह कंवल, बाबू हरनाम सिंह, ईश्वरी प्रसाद चौधरी तथा अन्य कई हिंदी रचनाकार उभरकर सामने आए।
इन्हीं दिनों पं. विवेकानंद शर्मा जी की भी अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुईं जिनमें जब मानवता कराह उठी, प्रशांत की लहरें, प्रधान मंत्री रातू मारा, गुलाब के फूल, फीजी में सनातन धर्म के सौ साल का इतिहास, आदि उल्लेखनीय हैं। आप ही की रचनाएँ विश्वकोश भारतीय संस्कृति, अनजान क्षितिज की ओर, प्रशांत की लहरें (नवीन संस्करण) और फीजी के राष्ट्र कवि पं. कमला प्रसाद मिश्र के काव्य संग्रह ने हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि में अपना नाम दर्ज़ कराया।
अभी तक रेडियो फीजी एकमात्र रेडियो स्टेशन था। लेकिन अब नवतरंग, रेडियो फीजी टू और बूला एफ.एम. ९८ हिंदी कार्यक्रम प्रसारित करने के लिए सामने आए। अब तो चौबीसों घंटे हिंदी कार्यक्रम प्रसारित होने लगे हैं। फीजी वन दूरदर्शन भी दिन में एक बार हिंदी में समाचार प्रस्तुत करता है और हर रविवार को झरोखा। समाचार पत्र के रूप में शांति दूत अग्रणी बना रहा और कुछ फुटकर समाचार पत्र भी सामने आए लेकिन अधिक समय तक ठहर न सके।
'संस्कृति एकमात्र निरंतर प्रकाशित होने वाली पत्रिका भी हिंदी साहित्य एवं संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए देश की सेवा के प्रति कटिबद्ध है। संस्कृति के साथ-साथ हिंदी महापरिषद फीजी एक और मासिक बुलेटिन लहर प्रकाशित कर नि:शुल्क वितरित कर रही है।


भारत में अंग्रेज़ी बनाम हिंदी
युनिवर्सिटी प्रेस, मैकमिलन आदि समेत अंग्रेज़ी के भारतीय प्रकाशक।
भारतीय भाषाओं के लिए केवल एक हॉल था। दिल्ली में, जहाँ मैं रहता हूँ उसके आस-पास अंग्रेज़ी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकाने हैं, हिंदी की एक भी नहीं। हक़ीक़त तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिंदी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी। टाइम्स आफ इंडिया समूह के समाचारपत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कहीं ज़्यादा होने के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेज़ी अख़बारों के मुकाबले अत्यंत कम हैं।
इन तथ्यों के उल्लेख का एक विशेष कारण है।
हिंदी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली पाँच भाषाओं में से एक है। जबकि भारत में बमुश्किल पाँच प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी समझते हैं। कुछ लोगों का मानना है यह प्रतिशत दो से ज़्यादा नहीं है। नब्बे करोड़ की आबादी वाले देश में दो प्रतिशत जानने वालों की संख्या 18 लाख होती है और अंग्रेज़ी प्रकाशकों के लिए यही बहुत है। यही दो प्रतिशत बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही, उससे भी ज़्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है।
इंग्लैंड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नज़रों से यह सवाल पूछा जाता है तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेज़ी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है? तुम क्यों दंभी-देहाती (स्नॉब नेटिव) बनते जा रहे हो? मुझे बार-बार यह बताया जाता है कि भारत में संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेज़ी क्यों ज़रूरी है, गोया यह कोई शाश्वत सत्य हो। इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेज़ी का विराजमान होना। क्यों कि मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती।
आइए शुरू से विचार करते हैं। सन 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बीस साल चार्टर का नवीकरण करते समय साहित्य को पुनर्जीवित करने, यहाँ की जनता के ज्ञान को बढ़ावा देने और विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक निश्चित धनराशि उपलब्ध कराई गई। अंग्रेज़ी का संभवतः सबसे खतरनाक पहलू है अंग्रेज़ी वालों में कुलीनता या विशिष्टता का दंभ।

कोढ़ में खाज का काम अंग्रेज़ी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मेरे भारतीय मित्र मुझे अपने शेक्सपियर के ज्ञान से खुद शर्मिंदा कर देते हैं। अंग्रेज़ी लेखकों के बारे में उनका ज्ञान मुझसे कई गुना ज़्यादा है। एन. कृष्णस्वामी और टी. श्रीरामन ने इस बाबत ठीक ही लिखा है जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते। जब तक हम इस दूरी को समाप्त नहीं करते अंग्रेज़ी ज्ञान जड़ विहीन ही रहेगा। यदि अंग्रेज़ी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से।
चलो इस बात पर भी विचार कर लेते हैं कि अंग्रेज़ी को कुलीन लोगों तक मात्र सीमित करने की बजाय वाकई सारे देश की संपर्क भाषा क्यों न बना दिया जाए?
नंबर एक, मुझे नहीं लगता कि इसमें सफलता मिल पाएगी (आंशिक रूप से राजनैतिक कारणों से भी),
दो, इसका मतलब होगा भविष्य की पीढ़ियों के हाथ से उनकी भाषा संस्कृति को जबरन छीनना। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया की तरह महज़ भाषाई समूह नहीं है। यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी है कि उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।
संपर्क भाषा का प्रश्न निश्चित रूप से अत्यंत जटिल है। यदि हिंदी के लंबरदारों ने यह आभास नहीं दिया होता कि वे सारे देश पर हिंदी थोपना चाहते हैं तो समस्या सुलझ गई होती। अभी भी देर नहीं हुई है। हिंदी को अभी भी अपने सहज रूप में ही बढ़ाने की ज़रूरत है और साथ ही प्रांतीय भाषाओं को भी, जिससे कि यह भ्रम न फैले कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की जगह हिंदी साम्राज्यवाद लाया जा रहा है।
यहाँ सबसे बड़ी बाधा हिंदी के प्रति तथाकथित कुलीनों की नफ़रत है। आप बंगाली, तमिल या गुजराती पर नाज़ कर सकते हैं पर हिंदी पर नहीं। क्यों कि कुलीनों की प्यारी अंग्रेज़ी को सबसे ज़्यादा खतरा हिंदी से है। भारत में अंग्रेज़ी की मौजूदा स्थिति के बदौलत ही उन्हें इतनी ताक़त मिली है और वे इसे इतनी आसानी से नहीं खोना चाहते। 

भाषा और देश
जिस दिन लार्ड मैकाले का सपना पूरा और गांधी जी का सपना ध्वस्त हो जाएगा, उस दिन देश पूरे तौर पर केवल 'इंडिया' रह जाएगा। हो सकता है, समय ज़्यादा लग जाए, लेकिन अगर भारतवर्ष को एक स्वाधीन राष्ट्र बनना है, तो इन दो सपनों के बीच कभी न कभी टक्कर होना निश्चित है।
जो देश भाषा में गुलाम हो, वह किसी बात में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन जाता है। यह एक पारदर्शी कसौटी है कि चाहे वे किसी भी समुदाय के लोग हों, जिन्हें हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने में आपत्ति है, वह भारतवर्ष को फिर से विभाजन के कगार तक ज़रूर पहुँचाएँगे।
लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। लार्ड मैकाले की सोच थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है।
अंग्रेज़ी जानने वालों को नौकरी में प्रोत्साहन देने की लार्ड मैकाले की पहल के परिणामस्वरूप काँग्रेसियों के बीच में अंग्रेज़ी परस्त काँग्रेसी नेता पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एकजुट हो गए कि अंग्रेज़ी को शासन की भाषा से हटाना नहीं है अन्यथा वर्चस्व जाता रहेगा और देश को अंग्रेज़ी की ही शैली में शासित करने की योजनाएँ भी सफल नहीं हो पाएँगी।
यह ऐसे अंग्रेज़ीपरस्त काँग्रेसी नेताओं का ही काला कारनामा था कि अंग्रेज़ी को जितना बढ़ावा परतंत्रता के 200 वर्षों में मिल पाया था, उससे कई गुना अधिक महत्व तथाकथित स्वाधीनता के केवल 50 वर्षों में मिल गया और आज भी निरंतर जारी है।
जबकि गांधी जी का सपना था कि अगर भारतवर्ष भाषा में एक नहीं हो सका, तो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा। भारत की प्रादेशिक भाषाओं के प्रति गांधी जी का रुख उदासीनता का नहीं था। वह स्वयं गुजराती भाषी थे, किसी अंग्रेज़ीपरस्त काँग्रेसी से अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान में उन्नीस नहीं थे, लेकिन अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छेड़ने के बाद अपने अनुभवों से यह ज्ञान प्राप्त किया कि अगर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को पूरे देश में एक साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, तो केवल हिंदी भाषा में, क्यों कि हिंदी कई शताब्दियों से भारत की संपर्क भाषा चली आ रही थी।
भाषा के सवाल को लेकर लार्ड मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से गुलाम बनाना। गांधी जी स्वप्नदृष्टा थे स्वाधीनता के और इसीलिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। स्वाधीनता संग्राम में सारे देश के नागरिकों को एक साथ आंदोलित कर दिखाने का काम गांधी जी ने भाषा के माध्यम से ही पूरा किया और अहिंसा के सिद्धांत से ब्रिटिश शासन के पाँव उखाड़ दिए।
पूरे विश्व में एक भी ऐसा राष्ट्र नहीं है, जहाँ विदेशी भाषा को शासन की भाषा बताया गया हो, सिवाय भारतवर्ष के। हज़ारों वर्षों की सांस्कृतिक भाषिक परंपरावाला भारतवर्ष आज भी भाषा में गुलाम है और आगे इससे भी बड़े पैमाने पर गुलाम बनना है। यह कोई सामान्य परिदृष्टि नहीं है। अंग्रेज़ी का सबसे अधिक वर्चस्व देश के हिंदी भाषी प्रदेशों में है।
भाषा में गुलामी के कारण पूरे देश में कोई राष्ट्रीय तेजस्विता नहीं है और देश के सारे चिंतक और विचारक विदेशी भाषा में शासन के प्रति मौन है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के सवालों को जैसे एक गहरे कोहरे में ढँक दिया गया है और हिंदी के लगभग सारे मूर्धन्य विद्वान और विचारक सन्नाटा बढ़ाने में लगे हुए हैं। राष्ट्रभाषा के सवाल पर राष्ट्रव्यापी बहस के कपाट जैसे सदा-सदा के लिए बंद कर दिए हैं। कहीं से भी कोई आशा की किरण फूटती दिखाई नहीं पड़ती।
सारी प्रादेशिक भाषाएँ भी अपने-अपने क्षेत्रों में बहुत तेज़ी से पिछड़ती जा रही हैं। अंग्रेज़ी के लिए शासन की भाषा के मामले में अंतर्विरोध भी तभी पूरी तरह उजागर होंगे, जब यह प्रादेशिक भाषाओं की संस्कृतियों के लिए भी ख़तरनाक सिद्ध होंगी। प्रादेशिक भाषाओं की भी वास्तविक शत्रु अंग्रेज़ी ही है, लेकिन देश के अंग्रेज़ीपरस्तों ने कुछ ऐसा वातावरण निर्मित करने में सफलता प्राप्त कर ली है जैसे भारतवर्ष की समस्त प्रादेशिक भाषाओं को केवल और केवल हिंदी से ख़तरा हो।
सुप्रसिद्ध विचारक हॉवेल का कहना है कि किसी भी देश और समाज के चरित्र को समझाने की कसौटी केवल एक है और वह यह कि उस देश और समाज की भाषा से सरोकार क्या है। जबकि भारतवर्ष में भाषा या भाषाओं के सवालों को निहायत फालतू करार दिया जा चुका है। लगता है भारत वर्ष की सारी राजनीतिक पार्टियाँ इस बात पर एकमत हैं कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जाए और देश में शासन की मुख्य भाषा केवल और केवल अंग्रेज़ी को ही रहना चाहिए।
भाषा के मामले में भारतवर्ष को छोड़कर किसी भी स्वाधीन राष्ट्र का रुख ऐसा नहीं है। अगर इंग्लैंड का कोई प्रधानमंत्री अपने देशवासियों को हिंदी में संबोधित करे, तो स्थिति क्या बनेगी? भारतवर्ष भी एक स्वाधीन राष्ट्र तभी बन पाएगा जब अंग्रेज़ीपरस्त राजनेताओं से मुक्ति मिलेगी। इससे पहले विदेशी भाषा से मुक्ति पाना संभव नहीं है। 

राजभाषा को राज के चंगुल से आज़ाद कर उसे जन भाषा बनाइए 
हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़े पर औपचारिक फातिहे पढ़कर रस्मअदायगी की जाती रही है पर समस्या के मूल तक जाने में न किसी की दिलचस्पी है, न इसकी ज़रूरत समझी जाती है। ऐसे शुष्क और नीरस माहौल में, जहाँ हिंदी दिवस के नाम पर कई कार्यालयों में हिंदी में चुटकुला प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं, हिंदी के पाठ्यक्रम में बदलाव/संशोधन की चर्चा हिंदी के तथाकथित शुभचिंतकों के रेगिस्तान में पानी की लकीर के दिखने-सी राहत पहुँचाने जैसा ही है!
इस स्वर्णजयंती वर्ष पर आपने बहुत से संस्थानों के लिफ़ाफ़ों पर छपा देखा होगा कि हिंदी दुनिया की तीसरी बड़ी भाषा है जबकि हक़ीक़त यह है कि अंग्रेज़ी के बाद हिंदी ही विश्व की दूसरे नंबर पर सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। चीनी भाषा को दूसरे स्थान पर माना गया है पर शुद्ध चीनी भाषा जानने वालों की संख्या हिंदी जानने वालों से काफ़ी कम हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विदेशियों में हिंदी भाषा सीखने और जानने वालों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हो रही हैं। इसके ठीक विपरीत हमारे अपने देश में बच्चे दूसरी कक्षा से ही, जब उन्हें क ख ग सिखाया जाता है, हिंदी के नाम पर नाक-भौंह सिकोड़ना शुरू कर देते हैं - क्या कभी हमने जानने और जाँचने की कोशिश की कि ऐसा क्यों होता हैं?
विश्व स्तर पर हिंदी
आज वैश्विक स्तर पर यह सिद्ध हो चुका है कि हिंदी भाषा अपनी लिपि और ध्वन्यात्मकता (उच्चारण) के लिहाज से सबसे शुद्ध और विज्ञान सम्मत भाषा है। हमारे यहाँ एक अक्षर से एक ही ध्वनि निकलती है और एक बिंदु (अनुस्वार) का भी अपना महत्व है। दूसरी भाषाओं में यह वैज्ञानिकता नहीं पाई जाती। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्राह्य भाषा अंग्रेज़ी को ही देखें, वहाँ एक ही ध्वनि के लिए कितनी तरह के अक्षर उपयोग में लाए जाते हैं जैसे ई की ध्वनि के लिए ee(see) i (sin) ea (tea) ey (key) eo (people) इतने अक्षर हैं कि एक बच्चे के लिए उन्हें याद रखना मुश्किल हैं, इसी तरह क के उच्चारण के लिए तो कभी c (cat) तो कभी k (king)। ch का उच्चारण किसी शब्द में क होता है तो किसी में च। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं। आश्चर्य की बात है कि ऐसी अनियमित और अव्यवस्थित, मुश्किल अंग्रेज़ी हमारे बच्चे चार साल की उम्र में सीख जाते हैं बल्कि अब तो विदेशों में भी हिंदुस्तानी बच्चों ने स्पेलिंग्स में विश्व स्तर पर रिकॉर्ड कायम किए हैं, जब कि इंग्लैंड में स्कूली शिक्षिकाएँ भी अंग्रेज़ी की सही स्पेलिंग्स लिख नहीं पाती।
हमारे यही अंग्रेज़ी भाषा के धुरंधर बच्चे कॉलेज में पहुँचकर भी हिंदी में मात्राओं और हिज्जों की ग़लतियाँ करते हैं और उन्हें सही हिंदी नहीं आती जबकि हिंदी सीखना दूसरी अन्य भाषाओं के मुकाबले कहीं ज़्यादा आसान है। इसमें दोष किसका है? क्या इन कारणों की पड़ताल नहीं की जानी चाहिए? (देवनागरी लिपि की ध्वन्यात्मक वैज्ञानिकता देखने के बाद अब नए मॉन्टेसरी स्कूलों में बच्चों को ए बी सी डी ई एफ जी एच की जगह अ ब क द ए फ ग ह पढ़ाया जाता है।)
संभ्रांत वर्ग की भाषा अंग्रेज़ी
भारत में अपनी भाषा की दुर्दशा के लिए सबसे पहले तो हमारा भाषाई दृष्टिकोण ज़िम्मेदार है जिसके तहत हमने अंग्रेज़ी को एक संभ्रांत वर्ग की भाषा बना रखा है।
हम अंग्रेज़ी के प्रति दुर्भावना न रखें, पर अपनी राष्ट्रभाषा को उसका उचित सम्मान तो दें जिसकी वह हकदार हैं। जवाहरलाल नेहरू ने चालीस साल पहले यह बात कही थी मैं अंग्रेज़ी का इसलिए विरोधी हूँ क्यों कि अंग्रेज़ी जाननेवाला व्यक्ति अपने को दूसरों से बड़ा समझने लगता है और उसकी दूसरी क्लास-सी बन जाती है। यही इलीट क्लास होती है।
'बहुत से परिवारों में बच्चे अपने माँ बाप से अंग्रेज़ी में बात करते हैं और नौकर या आया से हिंदी में क्यों कि उन्हें यह लगता है कि यह उसी कामगार तबक़े की भाषा है। इसका एक दूसरा अहम कारण यह भी है कि बच्चों को नर्सरी स्कूल में भेजने से पहले भी यह ज़रूरी हो जाता है कि इंटरव्यू में पूछे गए अंग्रेज़ी सवालों का वे सही उत्तर दे सकें, एकाध नर्सरी राइम्स सुना सकें। माता पिता उन्हें इस इंटरव्यू के लिए तैयार करने में अपनी सारी ऊर्जा खपा डालते हैं।
बच्चे बोलना सीखते ही अंग्रेज़ी के अल्फाबेट्स का रट्टा मारकर और वन टू टेन की गिनती दोहराने लगता है (हिंदी में गिनती तो आजकल कॉलेज छात्र छात्राओं को भी नहीं आती। हिंदी भाषा सीखने वाले एक रूसी या जापानी छात्र को ज़रूर आती होगी) लोअर के.जी. में पहुँचते ही बच्चा तीन-चार साल की उम्र में ए बी सी डी पढ़ना शुरू कर देता है जबकि हिंदी का क ख ग उन्हें दूसरी कक्षा से ही सिखाया जाता है, जब उन्हें यह अखरने लगता है कि यह एक अतिरिक्त भाषा भी उन्हें सीखनी पड़ रही हैं। आवश्यकता इसकी अधिक है कि प्रारंभिक कक्षाओं से ही पहले उन्हें हिंदी का अक्षर ज्ञान कराया जाए, बाद में अंग्रेज़ी का ताकि जो प्राथमिकता वे अंग्रेज़ी को देते हैं वह हिंदी को दें। तर्क यह दिया जाता है कि हिंदी तो अपनी मातृभाषा है, वह तो बच्चा सीख ही जाएगा, उसकी अंग्रेज़ी मज़बूत होनी चाहिए। आज इस तर्क को उलटने की आवश्यकता है - अंग्रेज़ी तो वह सीखेगा ही क्यों कि वह चारों ओर से अंग्रेज़ी माहौल में ही पल-बढ़ रहा है, अपनी भाषा कब सीखेगा?
हिंदी भाषा और साहित्य का पाठयक्रम
हिंदी की इस ग़लत नींव से ही जो सिलसिला शुरू होता है, वह हर राज्य के अलग-अलग पाठयक्रमों में एम.ए., पी एच.डी. तक चलता है। सन 1968 से, जब से मैंने कलकत्ता के एक अहिंदीभाषी कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया, जहाँ अधिकांश छात्राएँ बंगाली थीं, लगातार इस बात को महसूस किया कि हमारा पाठयक्रम समय के साथ चलने में बिल्कुल असमर्थ हैं। इन तीस-बत्तीस सालों में लगातार इस बारे में बोलती लिखती आ रही हूँ पर कहीं कोई बदलाव के आसार दिखाई नहीं देते।
हिंदी भाषा को अगर ज़िंदा रखना है तो पहली कक्षा की नर्सरी राइम्स से लेकर एम.ए. के पाठयक्रम तक में पूरी तरह सफ़ाई की ज़रूरत है। क्या आप विश्वास करेंगे कि तीसरी कक्षा के कोर्स में किसी एक ही कवि की लिखी हुई कुछ अधकचरी कविताओं की एक क़िताब है जिसमें न सही तुकबंदी है, न सही मात्राएँ, न सही व्याकरण। उसकी पहली कविता है -
जिस पर चरण दिए हम, जिसको नमन किए हम,
उस मातृभूमि की रज को. . .
पाँच छह साल के बच्चे को इस तरह की अशुद्ध हिंदी में नीरस, उबाऊ कविताएँ हम पढ़ाकर राजभाषा का क्या संस्कार डाल रहे हैं? गुलजार की कुछ मुक्त छंद की कविताएँ या एकलव्य प्रकाशन की बच्चों की कविताएँ भी इन तथाकथित देशप्रेम की भारी भरकम कविताओं से ज़्यादा रोचक हैं। हिंदी के कुछ दैनिक अख़बारों में जो बच्चों का पन्ना होता है, उसमें कई बार बारह से पंद्रह साल के बच्चों की लिखी हुई इतनी सुंदर कविताएँ होती हैं जो झट ज़बान पर चढ़ जाती हैं लेकिन नहीं, पता नहीं कैसे-कैसे सोर्स भिड़ाकर ये पंडिताऊ प्राध्यापक पाठयक्रम में अपनी गोटियाँ फिर कर लेते हैं फिर भले ही बच्चे ऐसी कविताएँ पढ़कर हिंदी पढ़ना छोड़ दें या अपने माता पिता से पूछें कि यह कौन-सी हिंदी हैं।
मछली जल की रानी है, या इब्नबतूता का जूता या इक्का दुक्का कविताएँ छोड़कर कहाँ हैं ऐसी कविताएँ जिन्हें पढ़ने और रटने में बच्चे आनंद महसूस करें। क्यों नहीं हम बच्चों के कोर्स में उनके द्वारा ही लिखी गई आसान और दिलचस्प कविताएँ रखते, बजाय इसके कि कविता को याद करने से पहले वे हर शब्द के अर्थ के लिए शब्दकोश खोलकर बैठें? नवभारत टाइम्स, 19 मई 2000 के मुंबई संस्करण में लखनऊ उ. प्र. की एक पत्रकार मंजरी मिश्रा की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई हैं नीरस हिंदी से दुखी हो गए हैं स्कूली बच्चे!
कई वर्ष पहले जब मेरी बड़ी बेटी सेंट्रल बोर्ड की दसवीं की परीक्षा दे रही थीं, उसके पाठयक्रम में रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता थी - परिचय। इस कविता की उपमाओं को समझाने के लिए अच्छे अच्छों के छक्के छूट जाएँ। हमारे राष्ट्रकवि ने 'मेरे नगपति, मेरे विशाल भी लिखी है, क्या हम परिचय के स्थान पर यह कविता या उनकी दूसरी अपेक्षाकृत आसान कविताएँ नहीं रख सकते? ताकि दसवीं पास करके बच्चे ग्यारहवीं में पहुँचते ही पढ़ाई जानेवाली विदेशी हिंदी छोड़कर, फ्रेंच या दूसरी किसी विदेशी भाषा को लेने के लिए छटपटाने न लगें? हमने खुद ही तो अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाया है, बोलना सीखते ही ट्विंकल ट्विंकल लिट्ल स्टार और जॉनी जॉनी यस पपा कविताएँ रटवाई हैं। हिंदी का क ख ग पढ़ाना तो दूसरी कक्षा से ही शुरू किया है। हिंदी माध्यम के सारे स्कूलों को बंद कर दिया है या उन्हें म्यूनिसिपल स्कूलों जैसा दोयम दर्जा दे दिया है और उसके बाद हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे बच्चे दसवीं कक्षा में ही हिंदी का समृद्ध साहित्य पढ़ें और यह समृद्धि जाहिर है या तो भक्तिकाल में हैं या छायावाद में (जिस छायावाद को कोई दलित प्राध्यापक उसकी क्लिष्ट भाषा और सौंदर्यवादी कलापक्ष के कारण हिंदी साहित्य का कलंक कह देता है तो सेमीनार में सिर फुटौवल की नौबत आ जाती है।)
कलकत्ता में मैथिलीशरण गुप्त की सौंवीं जन्म शताब्दी पर भारतीय संस्कृति संसद (या भारतीय भाषा परिषद) ने एक सेमीनार आयोजित किया था जिसमें वयोवृद्ध साहित्यकार पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी ने इसी समस्या पर दस बारह पृष्ठों का एक लंबा आलेख लिखा था, जिसमें उन्होंने पाठयक्रम की एक पूरी की पूरी कविता का उद्धरण देते हुए बताया था कि कैसे दसवीं कक्षा की एक छात्रा उनके पास बड़ी आशाएँ लेकर वह कविता समझने के लिए आईं पर उन्हें अफ़सोस जाहिर करना पड़ा। यह सेमीनार 1982 या 83 में हुआ था पर आजतक इतने श्रद्धेय विद्वान के सुझावों पर अगर सेकेंडरी कक्षा का पाठयक्रम निर्धारित करने वाली समिति ने ध्यान नहीं दिया तो क्या हम सब की आवाज़ें भी नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर नहीं रह जाएगी? सन 2000 में महाराष्ट्र बोर्ड की कक्षा बारहवीं के हिंदी के पाठयक्रम की एक सुप्रसिद्ध कविता की बानगी देखें -
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर,
छोड़ रहे हैं जंग के विक्षत वक्षस्थल पर!
शत शत फेनोच्छवासित, स्फीत फुत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर!
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पांतर,
अखिल विश्व ही विवर, वक्र कुंडल, दिक्मंडल!
शत सहस्त्र शशि, असंख्य ग्रह उपग्रह, उड़गण,
जलते, बुझते हैं स्फुलिंग से तुम में तत्क्षण,
अचिर विश्व में अखिल दिशावधि, कर्म, वचन, भव,
तुम्हीं चिरंतन, अहे विवर्तन हीन विवर्तन!
यह सुप्रसिद्ध छायावादी कवि श्री सुमित्रानंदन पंत की सुपरिचित कविता निष्ठुर परिवर्तन है। इसमें संदेह नहीं कि कविता में बिंब और प्रतीकों का अद्भुत संयोजन है, अनुप्रास अलंकार की छटा है पर ऐसी कविता पढ़ाने से पहले जिन्हें हम पढ़ा रहे हैं, उनकी पात्रता देखना भी आवश्यक है! ऐसी कविताओं से हिंदी की स्थिति में परिवर्तन सचमुच निष्ठुर होने की संभावना ही अधिक हैं। बारहवीं कक्षा के विद्यार्थी इसे पढ़ते हुए त्राहि-त्राहि कर उठते हैं। यह बात जब मैंने यहाँ राष्ट्रभाषा महासंघ के राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में कही, (जहाँ हर वक्ता अंग्रेज़ी को अपदस्थ करने के लिए क्या रणनीति अपनाई जाए, इसकी चर्चा में अपनी ऊर्जा ज़्यादा खपा रहा था यानी आप बैंक में हिंदी में हस्ताक्षर करें, अपने नामपट्ट हिंदी में लिखें, थँक्यू की जगह धन्यवाद, सॉरी की जगह क्षमा करें, गुडमॉर्निंग की जगह सुप्रभात बोलें वगैरह वगैरह) तो मुझपर भी हिंदी प्रेमी श्रोता बरस पड़े थे। एक सज्जन ने तो छूटते ही यह भी कहा कि आपकी तो मातृभाषा पंजाबी हैं, ख़ामख़्वाह हिंदी के लिए इतना परेशान क्यों होती है?
दरअसल हमारी पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हमारी नई पीढ़ी कैसे हिंदी की ओर आकर्षित हो, हिंदी भाषा से उसे विरक्ति न हो। पाठयक्रम निर्धारित करने वाले लगभग सभी सदस्य हिंदी बेल्ट से आते हैं और वे छात्रों की रुचि को अपने चालीस-पचास वर्ष पुराने मापदंड से ही मापते हैं। बदलता हुआ समय उनकी पकड़ से बाहर है। वे सुमित्रानंदन पंत को पढ़ाए बिना दुष्यंत कुमार, रघुवीर सहाय, धूमिल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना तक पहुँच ही नहीं सकते। निष्ठुर परिवर्तन ही पढ़ाना है तो एम.ए. के कोर्स में पढ़ाएँ, और बारहवीं में पंत जी को ही पढ़ाना है तो छात्र पंत जी की दो लड़के जैसी आसान कविता क्यों नहीं पढ़ सकते -
मनुज प्रेम से जहाँ रह सके, मानव ईश्वर,
और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर!
ऐसा नहीं हैं कि हिंदी में आज की नई पीढ़ी के समझ में आने लायक कविताएँ नहीं हैं, वे बखूबी हैं पर हिंदी का पाठयक्रम तय करनेवालों को, हिंदी साहित्य पढ़ाने वाले प्राध्यापकों को जब तक संस्कृतनिष्ठ, क्लिष्ट हिंदी की तत्सम-बहुल पंक्तियाँ नहीं मिलती, उन्हें संभवतः कविता या गद्य में भाषागत सौंदर्य दिखाई नहीं देता। संभवतः वह सोचते होंगे कि ऐसे सहज सपाट गद्य और ऐसी सीधी सादी कविता को पाठयक्रम में क्या पढ़ाना जो बिना प्राध्यापक के भी समझ में आ जाए।
साहित्य का प्रासंगिक पक्ष
साहित्य का कैनवस बहुत विस्तृत होता है। साहित्य में धर्म, मनोविज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र, इतिहास, गणित सबकुछ निहित है। भाषाविज्ञान को छात्र गणित का पेपर कहते हैं, उसमें जिसकी रटन-शक्ति जितनी ज़्यादा है, वह परीक्षा में उतने अधिक नंबर पा सकता है। हिंदी में एम.ए. करने वाले को हम साहित्य कम और गणित तथा इतिहास ही ज़्यादा पढ़ाते हैं। एम.ए. के पाठयक्रम में सूरदास पर एक विशेष पेपर होता है। छात्र सूरदास के पदों के भाव-सौंदर्य पर जितना पढ़ते हैं, उससे कहीं ज़्यादा मेहनत सूरदास की जन्म और मृत्यु तिथि संबंधी विवादों को कंठस्थ करने में गँवाते हैं। चंदवरदाई की कृति पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता - अप्रमाणिकता पर पन्ने दर पन्ने रंगे जाते हैं। यह सिर्फ़ हिंदी में एम.ए. करने वालों की समस्या नहीं है, अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. करनेवालों का भी यही रोना है कि हम कब शेक्सपिअर, शेली और कीट्स की पारंपरिक शब्दावली और संस्कारगत भाषा से आगे निकलेंगे? शेक्सपिअर से ग्राहम स्विफ्ट तक और सुमित्रानंदन पंत से शमशेर बहादुर सिंह, धूमिल, कुमार विकल तक और अज्ञेय से हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल तक साहित्य ने एक लंबी यात्रा तय की है पर हम यात्रा के प्रारंभ की भूलभुलैयों में इतना भटक जाते हैं कि यात्रा की लंबी राह तय करके मंज़िल हमें या तो दिखाई ही नहीं देती या हमारी दृष्टि के सामने शुरू से ही एक गहरा धुँधलका भर जाता है जो हमारी भाषा के सौंदर्य की समझ की धार को कुंद करता रहता है।
आज साहित्य पढ़ाने के पीछे सिर्फ़ डिग्री लेने की मंशा छिपी है। जिस छात्र को कम प्रतिशत के कारण कहीं और प्रवेश नहीं मिलता, वह हिंदी साहित्य की एम.ए. की कक्षा में नाम लिखा लेता है। जिस तरह समाजविज्ञान, अर्थशास्त्र, कानून, राजनीति विज्ञान के पाठयक्रम में समय और सिद्धांतों के साथ-साथ संशोधन होता रहता है, साहित्य में भी होना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता। हम क्लासिक ज़रूर पढ़ें पर इस तरह की एकांगी मुग्धता लेकर नहीं कि नए और आधुनिक या कहें समसामयिक साहित्य को सराहने में पूरी तरह असमर्थ हो जाएँ। कठिनाई तब होती है जब कॉलेज में पढ़ानेवाले हिंदी के अधिकांश प्राध्यापक स्वयं भी सिर्फ़ उतना ही पढ़ते हैं जितना उन्हें पाठयक्रम के तहत पढ़ाना है। नए साहित्य से वे भी उतने ही अपरिचित रहते हैं, जितने उनके छात्र। हाँ, कुछ अपवाद ज़रूर हैं। लीक से हटकर चलनेवाले उन अध्यापकों को अपने सहकर्मियों की उपेक्षा और राजनीति का भी शिकार होना पड़ता है।
प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह के वक्तव्य से मैं बिल्कुल सहमत हूँ, हिंदी का औसत छात्र एम.ए. करने के बाद भारतीय संस्कृति के नाम पर मध्यकालीनता को विरासत में पाकर निकलता है छात्राओं की स्थिति और भी शोचनीय है। क्या आपने ग़ौर किया है कि हिंदी में एम.ए. करनेवाली लड़कियाँ कौन-से वर्ग से आती हैं? ये लड़कियाँ ऐसे मध्यम-वर्ग से आती हैं जो परंपरागत संस्कारों और दकियानूसी रूढियों से जकड़ा हुआ है। वे पहले से ही भावुक और कमज़ोर किस्म की होती हैं। आज भी हिंदी में एम.ए. करनेवाली छात्रा जब कविता लिखना शुरू करती है तो महादेवी वर्मा के रहस्यवाद और अज्ञात प्रियतम के नाम ही अपनी पहली शुरुआत करती हैं। आज छायावादी कवि कितने प्रासंगिक रह गए हैं? हम इस तरह का साहित्य पढ़ाए अवश्य लेकिन सिर्फ़ साहित्य के इतिहास की जानकारी देने के लिए। वर्ना हम लड़कियों की बेहद भावुक, छुईमुई, अव्यावहारिक और वायवीय कौम ही पैदा करेंगे।
साहित्य और जीवनदृष्टि
साहित्य का काम हैं हमें एक दृष्टि देना, एक जुझारू आत्मविश्वास देना न कि हमें ज़िंदगी से दूर एक काल्पनिक रहस्य लोक में ले जाना जिसका अस्तित्व आज के संघर्षशील जीवन में कहीं है ही नहीं। हिंदी साहित्य में एम.ए. करनेवाली छात्राओं को जीवन से दूर करनेवाला साहित्य पढ़ाना या साहित्य के माध्यम से एक जीवनदृष्टि न दे पाना एक अक्षम्य अपराध है।
आज जब हर विषय में विविधताएँ बढ़ रही हैं, साहित्य में भी एम.ए. करनेवालों के लिए चुनाव की गुंजाइश भी होनी चाहिए - पत्रकारिता, अनुवाद, पटकथा लेखन, विज्ञापन कॉपीराइटिंग, सामान्य ज्ञान, रचनात्मक लेखन आदि को भी साहित्य की शाखाओं में शामिल किया जाए। एक पेपर ज़रूरी तौर पर समाजविज्ञान का होना चाहिए जिसमें हम छात्राओं को - बेशक साहित्य के माध्यम से एक संस्कार दे सकें। इसमें हम कबीर, निराला, प्रेमचंद, यशपाल, मुक्तिबोध, धूमिल आदि को एक नए कोण से पढ़ाएँ जिसके तहत हम इनके भाव-सौंदर्य या भाषागत सौंदर्य के साथ-साथ इनके कथ्य के माध्यम से जीवन की सच्चाइयों से छात्रों का साक्षात्कार करवाएँ और छात्राओं को अपने को अभिव्यक्त करने के गुर सिखाने की कार्यशालाएँ आयोजित की जाएँ।
हिंदी के पाठ्यक्रमों में और पढ़ाने के तरिकों में अगर कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं किए गए तो हिंदी की एकेडेमिक डिग्री हमें सिर्फ़ मध्यकालीन संस्कार वाली प्राध्यापकी ही दे पाएगी और हम हर साल ऐसे प्राध्यापक पैदा करते रहेंगे जो किसी भी दूसरे व्यवसाय की तरह प्राध्यापकी को बस रोटी-रोज़ी कमाने का ज़रिया ही समझते रहेंगे। अपनी भाषा के प्रति प्रतिबद्धता और संलग्नता एक सिरे से ग़ायब दिखाई देगी और हम हर साल 14 सितंबर को साल में एक बार हिंदी को लेकर सामूहिक विलाप करते दिखाई देंगे, सहस्त्राब्दी उत्सवों के आयोजन में सरकारी ग्रांट पर सम्मानों की रेवडियाँ (सस्ते काग़ज़ पर थोक में पोस्टरनुमा सम्मान पत्र और गले में रिबन के साथ लटकनेवाले अठन्नी छाप मैडल)  बाँटी जाएँगी और बुजुर्ग हिंदी सेवी सम्मानित होने के स्थान पर अपमानित होकर राजधानी से बैरंग लिफ़ाफ़े की तरह वापस लौटेंगे! हैरत है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में अपनी भाषा को लेकर कहीं कोई सुनवाई नहीं हैं!